Friday, October 2, 2009

अफ्सुर्दगी-ए-दिल में भी जी को जलाते रहे ..
हम भी बे- वजह खुद को आजमाते रहे. ...!!

जाने कौन सी घड़ी में.. ये इख्तियार-ए-हुनर कर लिया ..
उलझी हुई जिंदगी को और भी उलझाते रहे....!!

कुछ तो एहसास पहले भी था, मंजिल की हकीकत का...
फिर भी, चलते रहे, खुद को बहलाते रहे...!!

वो जो उम्मीद सी थी..यूँ बे-वजह भी न थीं...
वो भी अपने ही थे ..जो सब्ज-बाग़ दिखलाते रहे ...!!

शायद यही दुनिया का चलन हो..ये मान कर हम..
मिलते जुलते रहे...आते जाते रहे...!!!


फिर कभी जो धुन सी सवार हुई...तो 'साहिल' की रेत पे....
बैठ कर घंटों..जाने क्या क्या बनाते रहे...!!!



(अफ्सुर्दगी-disappointment; इख्तियार-ए-हुनर: developing a skill;सब्ज-बाग़- )