Sunday, February 15, 2009


वक्त गुजरता रहा जिन्दगी के इम्तेहान में ...
रात होती , तो हम तकते आसमान में ...!!!

मेरे हर आगाज़ का अंजाम , बे -असर ही रहा ....
मुक्कदर मेरा , ना जाने , है किसके अमान में ...?

बे -इरादा कोई लग्जिश , हमसे ही हुई हो शायद ...
पर खामियां तो होती ही हैं इंसान में ....!!!

सूरत -ए -हाल भी कुछ यूँ बदला है , हर सेहरा -ओ -शेहेर का ...
के वक्त मांगो भी किसी से , तो मिलता है एहसान में ...!!!

अब तो मरासिम भी कोई बनता नहीं, बे -जरुरत किसे से ....
ख़यालात कितने मुख्तलिफ हो चुंके हैं इस जहान में ...!!!

गौर फ़रमाया जो हमने , तो मिले कई हम -नफस ....
फ़साना सबका एक सा था , फर्क था तो सिर्फ , उन्वान में ...!!

मुझे तो शक है , की उसका (खुदा ) वजूद है भी की नहीं ....
हम क्यूँ जाते हैं मंदिर ? किसे ढूँढ़ते हैं रहमान में ..??


( Aagaaz- starting of something, Amaan-possesion, Lagjish- mistake, Maraasim- Relationship, Mukhtalif- Of different type, Unwaan- title )